May 27, 2010


मेरे शब्द आज बीमार हैं,

तबियत कुछ भारी सी है,

आज खिलखिलाते नहीं,

न जाने क्यूँ रो रहे हैं,

कहीं दर्द है शायद.....




May 20, 2010

मन में जन्म लेती कुछ रचनाएँ
पर कागज की धरती पर पनप नहीं पाती
कभी समय के अभावों की वजह से
तो कभी स्वयं की बदलती भावनाओं की वजह से
और रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में कहीं गम हो जाती हैं
इस तरह मेरे ही हाथों हो जाता है क़त्ल
मेरी अपनी रचनाओं का.....

कथाकार


मैं एक कथाकार हूँ
और कागज मेरा आंगन है
जब मैं कलम का झुला
इस आंगन के पेड़ों पर डालता हूँ
तब नन्हे मुन्ने शब्द
आँगन में खेलने आ जाते हैं
वो हँसते हैं, गुनगुनाते हैं
लड़ते झगड़ते भी हैं
पर मैं ये देख के हैरान हूँ
कि कैसे लड़ते झगड़ते भी
वो एक हो कर
कथा, कहानी और कविताओं का
सुनहरा रूप ले लेते हैं