
वो भी क्या दिन थे
जब हम चाँद का स्वाद चखा करते थे
कभी खीर में देती थी माँ
कभी दूध में घोल देती थी
कभी रोटी के टुकड़े में
दबा कर खिला दिया करती
तब चाँद बहुत मीठा होता था
अब तो बहुत खारी लगती हैं रातें
जब आँखों में सारी रात
जगती हैं रातें
दिन भी कितने फीके लगते हैं अब
बड़े होने पर क्यूँ
बेस्वाद हो जाती है
ज़िन्दगी
- शेफाली