
रात की बारिश के बाद
आज सुबह बहुत सुहानी थी
रोज़ की तरह चाय के साथ
अखबार उठाया
कुछ फ़िल्मी गोस्सिप पढ़ी
बाज़ार की खबरें देखीं
खेल समाचार पढ़े
फिर बाकी अखबार पे
एक सरसरी सी निगाह डाल
उठ गए
रोज़मर्रा के कामों के लिए
कभी कभी लगता है
हम कांच के एक कमरे में
कैद हैं
यहाँ से दीखता सब कुछ है
बस नहीं सुनाई पड़ते
धमाके, चीखें और सिसकियाँ................
लोकतंत्र के चारों स्तम्भ इस समय पूरी तरह से हिले हुए हैं
ReplyDeleteन्यायपालिका हो या कार्यपालिका या विधायिका या पत्रकारिता
कोई भी इस समय सही से काम नहीं कर पा रहा है
कही न कही इसके लिए आम इन्सान भी जिम्मेदार है
देखिये ना हम सभी भ्रस्टाचार से सभी दुखी है परन्तु फिर भी
सभी चाहते है की उनका बेटा सरकारी कर्मचारी बने (उपरी कमाई के लिए)या
पत्रकार बने (विभिन्न प्रकार के कार्य आसानी से करवा दे)
अथवा जज बन जाये
हम सभी तब तक किसी बात पर ध्यान नहीं देते जब तक की उस से हमें कोई नुक्सान सीधे सीधे ना हो रही हो
हम ये भूल जाते है की यदि किसी एक साथ अन्याय हो रहा है तो कल हमारे साथ भी हो सकता है
हमारे भारत मे आज भी पोरस बहुत कम है
कभी कभी लगता है
ReplyDeleteहम कांच के एक कमरे में
कैद हैं.... bahut hi gahre bhaw
कभी कभी लगता है
ReplyDeleteहम कांच के एक कमरे में
कैद हैं
यहाँ से दीखता सब कुछ है
बस नहीं सुनाई पड़ते
धमाके, चीखें और सिसकियाँ....
वर्तमान हालातों को आपने बहुत गहराई से रचना के माध्यम से सामने लाया है ...आपकी रचनात्मकता का जबाब नहीं ....आशा है आप इसे बनाये रखेंगे .....आपका आभार
@ अलोक जी
ReplyDeleteसही कहा हम अपने ऊपर हो रहे अन्यायों को देखते हैं परन्तु दूसरों की बारी आने पर खुद ही अन्यायी बन जाते हैं
हमे अपने विचारोमे सुधार की जरुरत है
@ रश्मि दीदी
शुक्रिया
@ केवल राम
मैं पूरी कोशिश करुँगी :)
bahut khoob shephali i nvr knew u also like to write.. as far as this 'subha ka akhbaar is concern" has touched my heart ..... bahut thode se shabdo mai bahut kuch likh dia.... plzzzzzzzzz keep shring ......
ReplyDeletesubah utth kar chai ki chuski ke saath akhbaar ka lutf nahi utta sake,
ReplyDeleteaur hum mehrum rah gaye duniyadari se.
subah ka akhbaar geela tha,
kal akhbaar wale ko badal dena.
बहुत अच्छा लिखतीं हैं आप शेफाली जी.
ReplyDeleteशुक्र मानिए धमाके,चीखें और सिसकियाँ
सुनाई नहीं पड़ रहीं अखबार से.टीवी
चैनलों पर तो सब कुछ देखा जा सकता है.
हाँ,वही जो बस दिखलाया जाता है.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है.
This comment has been removed by the author.
ReplyDelete@ ankit will try keep posting
ReplyDelete@ sumit kal akhbaar badal kar padh lijiyega duniyadari se rubar ho jayenge :)
@rakesh shukriya
हाँ.. सच्चाई है यह तो.. कांच के कमरे में बंद बेजान और दिलों को निकाल कर एक कोने में रख कर हम अपने में खोये हुए आज के इंसान है जिसे दूसरे कमरे में होने वाली भी गतिविधियों से सारोकार नहीं है.. अच्छी रचना..
ReplyDeleteपरवरिश पर आपके विचारों का इंतज़ार है..
आभार