July 04, 2011

सुबह का अखबार




रात की बारिश के बाद
आज सुबह बहुत सुहानी थी
रोज़ की तरह चाय के साथ
अखबार उठाया
कुछ फ़िल्मी गोस्सिप पढ़ी
बाज़ार की खबरें देखीं
खेल समाचार पढ़े
फिर बाकी अखबार पे
एक सरसरी सी निगाह डाल
उठ गए
रोज़मर्रा के कामों के लिए
कभी कभी लगता है
हम कांच के एक कमरे में
कैद हैं
यहाँ से दीखता सब कुछ है
बस नहीं सुनाई पड़ते
धमाके, चीखें और सिसकियाँ................

10 comments:

  1. लोकतंत्र के चारों स्तम्भ इस समय पूरी तरह से हिले हुए हैं
    न्यायपालिका हो या कार्यपालिका या विधायिका या पत्रकारिता
    कोई भी इस समय सही से काम नहीं कर पा रहा है
    कही न कही इसके लिए आम इन्सान भी जिम्मेदार है
    देखिये ना हम सभी भ्रस्टाचार से सभी दुखी है परन्तु फिर भी
    सभी चाहते है की उनका बेटा सरकारी कर्मचारी बने (उपरी कमाई के लिए)या
    पत्रकार बने (विभिन्न प्रकार के कार्य आसानी से करवा दे)
    अथवा जज बन जाये

    हम सभी तब तक किसी बात पर ध्यान नहीं देते जब तक की उस से हमें कोई नुक्सान सीधे सीधे ना हो रही हो
    हम ये भूल जाते है की यदि किसी एक साथ अन्याय हो रहा है तो कल हमारे साथ भी हो सकता है
    हमारे भारत मे आज भी पोरस बहुत कम है

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  2. कभी कभी लगता है
    हम कांच के एक कमरे में
    कैद हैं.... bahut hi gahre bhaw

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  3. कभी कभी लगता है
    हम कांच के एक कमरे में
    कैद हैं
    यहाँ से दीखता सब कुछ है
    बस नहीं सुनाई पड़ते
    धमाके, चीखें और सिसकियाँ....

    वर्तमान हालातों को आपने बहुत गहराई से रचना के माध्यम से सामने लाया है ...आपकी रचनात्मकता का जबाब नहीं ....आशा है आप इसे बनाये रखेंगे .....आपका आभार

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  4. @ अलोक जी
    सही कहा हम अपने ऊपर हो रहे अन्यायों को देखते हैं परन्तु दूसरों की बारी आने पर खुद ही अन्यायी बन जाते हैं
    हमे अपने विचारोमे सुधार की जरुरत है

    @ रश्मि दीदी
    शुक्रिया

    @ केवल राम
    मैं पूरी कोशिश करुँगी :)

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  5. bahut khoob shephali i nvr knew u also like to write.. as far as this 'subha ka akhbaar is concern" has touched my heart ..... bahut thode se shabdo mai bahut kuch likh dia.... plzzzzzzzzz keep shring ......

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  6. subah utth kar chai ki chuski ke saath akhbaar ka lutf nahi utta sake,
    aur hum mehrum rah gaye duniyadari se.
    subah ka akhbaar geela tha,
    kal akhbaar wale ko badal dena.

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  7. बहुत अच्छा लिखतीं हैं आप शेफाली जी.
    शुक्र मानिए धमाके,चीखें और सिसकियाँ
    सुनाई नहीं पड़ रहीं अखबार से.टीवी
    चैनलों पर तो सब कुछ देखा जा सकता है.
    हाँ,वही जो बस दिखलाया जाता है.

    सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.

    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है.

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  9. @ ankit will try keep posting

    @ sumit kal akhbaar badal kar padh lijiyega duniyadari se rubar ho jayenge :)


    @rakesh shukriya

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  10. हाँ.. सच्चाई है यह तो.. कांच के कमरे में बंद बेजान और दिलों को निकाल कर एक कोने में रख कर हम अपने में खोये हुए आज के इंसान है जिसे दूसरे कमरे में होने वाली भी गतिविधियों से सारोकार नहीं है.. अच्छी रचना..

    परवरिश पर आपके विचारों का इंतज़ार है..
    आभार

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आपके अनमोल वक़्त के लिए धन्यवाद्
आशा है की आप यूँ ही आपना कीमती वक़्त देते रहेंगे