शब्दों से खेलना बचपन में सीखाया जाता है
मैंने भी सीखा, पहले अक्षरों से शब्द बनाना, फिर शब्दों से वाक्य बनाना,
पर एक चीज़ जो और सीखी वो था शब्दों को एक सार में पिरोना, मैंने तो कुछ खास नहीं किया पर लोग कहते हैं की मेरे द्वारा पिरोये गए शब्द कविताओं की श्रंखला बन जाते हैं
और आज मेरे इन्ही शब्दों से मेरी पहचान है
wo barish ki bunde aur teri yaad ka aana, dono me koi rista sahai shayed............ ye aisi hi hoti hai .........hum kitna bhi kosis karein pr ye yaadien nahi jati.............
झाकता हूँ जब अतीत के आइने मेँ, तो सोचता हूँ कि, वक्त बदल गया , या फिर वक्त ने मुझे बदल दिया। पहले ये जिन्दगी दावोँ पर चलती थी, अब उसके दावेदार हैँ कई। इससे तो भली वहीँ जिँदगी थी, जब चार आने के बाइस्कोप मेँ ज्यादा संतुष्टि मिलती थी। अब समझौता कर लिया मैँने, कि वो यादेँ दूर किसी शहर मेँ बसतीँ हैँ, और वक्त का गुजरना तो एक नियति है। - सुमित श्रीवास्तव
झाकता हूँ जब अतीत के आइने मेँ, तो सोचता हूँ कि, वक्त बदल गया , या फिर वक्त ने मुझे बदल दिया। पहले ये जिन्दगी दावोँ पर चलती थी, अब उसके दावेदार हैँ कई। इससे तो भली वहीँ जिँदगी थी, जब चार आने के बाइस्कोप मेँ ज्यादा संतुष्टि मिलती थी। अब समझौता कर लिया मैँने, कि वो यादेँ दूर किसी शहर मेँ बसतीँ हैँ, और वक्त का गुजरना तो एक नियति है। - सुमित श्रीवास्तव
थोडा वक़्त लगाएगी ये थकन ....यादें हैं ना.....
ReplyDeleteतब ये एहसास हुआ
ReplyDeleteयादें मेरा दम घोंट रही थीं
और अँधेरा छाया था
सटीक लिखा है ..अच्छी अभिव्यक्ति
yaaden rukti kaha hain
ReplyDeletewo barish ki bunde aur teri yaad ka aana, dono me koi rista sahai shayed............
ReplyDeleteye aisi hi hoti hai .........hum kitna bhi kosis karein pr ye yaadien nahi jati.............
अच्छी कविता...
ReplyDeleteझाकता हूँ जब अतीत के आइने मेँ, तो सोचता हूँ कि, वक्त बदल गया , या फिर वक्त ने मुझे बदल दिया। पहले ये जिन्दगी दावोँ पर चलती थी, अब उसके दावेदार हैँ कई। इससे तो भली वहीँ जिँदगी थी, जब चार आने के बाइस्कोप मेँ ज्यादा संतुष्टि मिलती थी। अब समझौता कर लिया मैँने, कि वो यादेँ दूर किसी शहर मेँ बसतीँ हैँ, और वक्त का गुजरना तो एक नियति है। - सुमित श्रीवास्तव
ReplyDeleteझाकता हूँ जब अतीत के आइने मेँ, तो सोचता हूँ कि, वक्त बदल गया , या फिर वक्त ने मुझे बदल दिया। पहले ये जिन्दगी दावोँ पर चलती थी, अब उसके दावेदार हैँ कई। इससे तो भली वहीँ जिँदगी थी, जब चार आने के बाइस्कोप मेँ ज्यादा संतुष्टि मिलती थी। अब समझौता कर लिया मैँने, कि वो यादेँ दूर किसी शहर मेँ बसतीँ हैँ, और वक्त का गुजरना तो एक नियति है। - सुमित श्रीवास्तव
ReplyDeletebahut khoobsurat kavita...
ReplyDeletebahut khoobsurat kavita...badhaai.
ReplyDeleteयादों का वजन ही इतना है कि थकान नहीं जाती ....
ReplyDeleteसुंदर स्वरुप ...शब्दों को खूब संवारा है आपने ......अच्छी कविता के रूप में इसे बंधा है......दाद कबूल कीजियेगा |
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