November 18, 2010

ज़िन्दगी का स्वाद





वो भी क्या दिन थे

जब
हम चाँद का स्वाद चखा करते थे

कभी
खीर में देती थी माँ

कभी
दूध में घोल देती थी

कभी
रोटी के टुकड़े में
दबा
कर
खिला दिया करती
तब
चाँद बहुत मीठा होता था

अब
तो बहुत खारी लगती हैं रातें

जब
आँखों में सारी रात

जगती
हैं रातें

दिन
भी कितने
फीके लगते हैं अब
बड़े
होने पर क्यूँ

बेस्वाद
हो जाती है

ज़िन्दगी

-
शेफाली

November 14, 2010

एक तमन्ना




दिया है बहुत कुछ

ज़िन्दगी ने मुझको

सिर्फ तुझको छूने की

एक तमन्ना न पूरी हुई

शायद यही वजह है

कि आज भी मैं

तुझको खुदा की तरह

पूजता हूँ

- शेफाली




November 13, 2010

तितलियाँ



रोज़ यही होता है
मैं समय की गांठें खोलूं
तो यादों की नाज़ुक
तितलियाँ उड़ने लगती हैं
नीली पीली लाल गुलाबी
रंग बिरंगी यादें
और यादों के पंखों पर
सवार हो कर मैं
रोज़ मिलने जाती हूँ
गुज़रे हुए हर लम्हे से ........
- शेफाली

November 08, 2010

पत्थर के निवाले



एक नयी बनती कोठी
वहां काम करती एक मजदूर माँ
और माटी के ढेर से खेलता
उसका अबोध बालक
अचानक उठा एक इंट
मुह में धर लिया उसने
माँ ने देखा, मुस्कुराई
और मैं सोचती रह गयी
कैसे हज़म कर लेते हैं ये बच्चे
इंट, कंकड़, पत्थर सब..........
- शेफाली

मन की उलझन


सांझ के साए मन के अंतर में उगते हैं
दरिया दिल की धड़कन के साथ बहते हैं
मन की इस उलझन को सुलझाऊं कैसे
या मैं रो रो कर शोर मचाऊँ कैसे
साथी मेरा सोया है

सुन्दर सपनो खोया खोया है
मैं चीख चीख उसको जगाऊँ कैसे.......

-
शेफाली

August 15, 2010

यादें





वो शहर छोड़ना था मुझको


तो बाक्स में बंद कर लाये


किताबें, कपडे, बाकि सब सामान


यहाँ आ के देख तो महसूस हुआ


यादों का सूटकेस वहीँ छुट गया


- शेफाली

शिक्षा एक व्यवसाय

"बड़ी बड़ी इमारतें,
इम्पोर्टेड furniture,
digital बोर्ड,
लैपटॉप फ्री है,
आपके बच्चे को
हम नहीं पढ़ाएंगे,
क्यूंकि यहाँ की,
हाई फाई फी है"
make up में लिपटी
काउन्सलर ने जब ये कहा
तब लगा शिक्षा

अब एक अछा व्यवसाय हो गयी है
- शेफाली

May 27, 2010


मेरे शब्द आज बीमार हैं,

तबियत कुछ भारी सी है,

आज खिलखिलाते नहीं,

न जाने क्यूँ रो रहे हैं,

कहीं दर्द है शायद.....




May 20, 2010

मन में जन्म लेती कुछ रचनाएँ
पर कागज की धरती पर पनप नहीं पाती
कभी समय के अभावों की वजह से
तो कभी स्वयं की बदलती भावनाओं की वजह से
और रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में कहीं गम हो जाती हैं
इस तरह मेरे ही हाथों हो जाता है क़त्ल
मेरी अपनी रचनाओं का.....

कथाकार


मैं एक कथाकार हूँ
और कागज मेरा आंगन है
जब मैं कलम का झुला
इस आंगन के पेड़ों पर डालता हूँ
तब नन्हे मुन्ने शब्द
आँगन में खेलने आ जाते हैं
वो हँसते हैं, गुनगुनाते हैं
लड़ते झगड़ते भी हैं
पर मैं ये देख के हैरान हूँ
कि कैसे लड़ते झगड़ते भी
वो एक हो कर
कथा, कहानी और कविताओं का
सुनहरा रूप ले लेते हैं