शब्दों से खेलना बचपन में सीखाया जाता है
मैंने भी सीखा, पहले अक्षरों से शब्द बनाना, फिर शब्दों से वाक्य बनाना,
पर एक चीज़ जो और सीखी वो था शब्दों को एक सार में पिरोना, मैंने तो कुछ खास नहीं किया पर लोग कहते हैं की मेरे द्वारा पिरोये गए शब्द कविताओं की श्रंखला बन जाते हैं
और आज मेरे इन्ही शब्दों से मेरी पहचान है
लिखते रहिये ... शुभकामनाएँ
ReplyDeletekitna samay hai aapke paas
ReplyDeleteki roz yaddon se milne chali jaati hai...
yaadon se milne ke liye samay ki ni, titliyon ke pankhon ki jarurat hoti hai
ReplyDeleteasaadhaaran abhivyakti....likhate rahiye....
ReplyDeleteawesummmm........feelingggggg!!!!!!!!
ReplyDeletethnks lot
ReplyDeleteमैं समय की गांठें खोलूं
ReplyDeleteतो यादों की नाज़ुक
तितलियाँ उड़ने लगती हैं
शेफाली जी बहुत कोमल है आपकी कविता एकदम तितलियों की तरह !
शुभकामनायें आपको !
बहुत खूब!
ReplyDeleteसादर
अच्छी रचना...
ReplyDeleteसादर बधाई....
kitna sunder likhi hain.....
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